हाशिए पर करवटें ले रही इक जान है
धुंधले आईनों से चमक उठने लगी है
टूटकर सितारे गर बिखर गए तो क्या हुआ
दहकते शोलों से चिंगारियां फिर उड़ने लगी हैं
अलाहिदा हो गई थीं जो क़ौमे किसी हिज्र में
एक बार फिर काबे की ओर मुड़ने लगी हैं
ये जब्र ओ कैद ओ बेड़ियां सब टूट जाएंगी
के बहर-ए-शबाब देखो कैसे जुड़ने लगी है
ये तड़प ओ आह ये चीखें जो सिसकती हैं जा-ब-जा
हाय अब चुप न रहेंगी कि कलम चलने लगी हैं
© Muntazir
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बहुत खूब मुन्तज़िर! यह कलम कभी न रुके! 👌🏼
लाज़वाब।अब कलम नहीं चलेगी तो क़यामत होगी।
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