ये रात गुज़र जाएगी कल कौन जाने
उम्र के बाकी हैं कितने पल कौन जाने
कैफ़िय्यत-ए-हयात-ओ-नफ्स ताहिर हो
उल्फ़त-ए-दुनिया है तिलिस्म हल कौन जाने
आफताब बन सको तो रौशन है ज़माना
पराई चमक पर माहताब का बल कौन जाने
नील-सा निकलो जो बयाबां से तो बात भी है
वगर्ना वीरानों में सूखे पड़े नल कौन जाने
मुहब्बत पाकीज़ा वही है जो ख़ुदा से हो
इश्क़ की आग में जलना है तो जल कौन जाने
शुआ-ए-ज़र-ओ-आस ज़िक्र-ए-अल्लाह से है
शजर-ए-दुनिया में क्या रखा है फल कौन जाने
हर गाम पर फ़रेब है इस सफर में मुसाफिर
फितरत है मुनाफ़िक़ का छल कौन जाने
एक कैद है दुनिया ये मरसिया है जिंदगी
सजी है बिखरे अशआरो से ग़ज़ल कौन जाने
© Muntazir
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Wow. How desolate. How impressive. How beautiful.
बेहद खूबसूरत अल्फ़ाज”…आफ़ताब बन सको तो रौशन है ज़माना,पराई बल पर म़ाहताब का बल कौन जाने…” लेकिन पाकीज़ा मुहब्बत खुदा से बन्दा तभी कर सकता है जब वह पहले ख़ुदा के बन्दों से प्यार कर सके।प्यार,मुहब्बत और इश्क-ये तीन पायदान हैं ख़ुदा तक पहुंचने के लिये।ये मेरा ख्याल है-क्या आप इस ख्याल से रजामन्द हैं?हो सके तो ज़वाब देना।मेरी मुहब्बत इन्सान से होके ख़ुदा की इब़ादत में तब्दील हो चुकी है-वो मेरा ख्याल ही मेरा तजुर्बा है।
आप मेरी नज़्म”दरख्त”जरूर पढियेगा।कुछ कुछ आपकी शजर-ए-दुनिया की परछाई सी नजर आयेगी।पर आपकी नज़्म ज्यादा खूबसूरत है।इन्शाअल्लाह।खुदा खैर करे।
many urdu words i didn’t understand ..but i can feel ur poetry …beauty
Aapse guzarish hai ki ye alfaz nagri ke saath nastaliq Hindi mein bhi likhe. Jazakallah